मैं हूँ मगर आज उस गली के सभी दरीचे खुले हुए हैं
कि अब मैं आज़ाद हो चुका हूँ तमाम आँखों के दाएरों से
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जहाँ भर में मिरे दिल सा कोई घर हो नहीं सकता
ये आब-ओ-ताब इसी मरहले पे ख़त्म नहीं
चराग़-ए-ख़ाना-ए-दिल को सुपुर्द-ए-बाद कर दूँ
लौट जाने की इजाज़त नहीं दूँगा उस को
नशात-ए-इज़हार पर अगरचे रवा नहीं ए'तिबार करना
ये सच है मेरी सदा ने रौशन किए हैं मेहराब पर सितारे
दयार-ए-ख़्वाब को निकलूँगा सर उठा कर मैं
इक शम्अ' की सूरत में मंज़ूर किया जाऊँ
होंटों पर है बात कड़ी ताज़ीरें भी
नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने
आइने में अक्स खिलता है गुल-ए-हैरत नहीं
जिस क़दर महमेज़ करता हूँ मैं 'साजिद' वक़्त को