जी में आता है कि दुनिया को बदलना चाहिए
और अपने आप से मायूस हो जाता हूँ मैं
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उस के होने से हुई है अपने होने की ख़बर
मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है
समझते हैं जो अपने बाप की जागीर मिट्टी को
जिस क़दर महमेज़ करता हूँ मैं 'साजिद' वक़्त को
क़र्या-ए-हैरत में दिल का मुस्तक़र इक ख़्वाब है
रास आती ही नहीं जब प्यार की शिद्दत मुझे
एक ख़्वाहिश है जो शायद उम्र भर पूरी न हो
आज खुला दुश्मन के पीछे दुश्मन थे
रुका हूँ किस के वहम में मिरे गुमान में नहीं
इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे
हम मुसाफ़िर हैं गर्द-ए-सफ़र हैं मगर ऐ शब-ए-हिज्र हम कोई बच्चे नहीं