फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
उस ख़ौफ़ का किसी ने ख़ुदा नाम रख दिया
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फ़क़त इक शग़्ल बेकारी है अब बादा-कशी अपनी
फिर वो नज़र है इज़्न-ए-तमाशा लिए हुए
क्या कीजिए कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
तेरा ख़ुलूस-ए-दिल तो महल्ल-ए-नज़र नहीं
दौर-ए-फ़लक के शिकवे गिले रोज़गार के
ख़ुदा गवाह कि दोनों हैं दुश्मन-ए-परवाज़
एक नज़्म
मसरफ़ के बग़ैर जल रहा हूँ
कि दर गुफ़्तन नमी आयद
नज़्म
किस को है हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद का दावा देखें
तेरी आँखों में जो नशा है पज़ीराई का