जो मेरे पास था सब लूट ले गया कोई
किवाड़ बंद रखूँ अब मुझे है डर किस का
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बाग़ में होना ही शायद सेब की पहचान थी
हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया
ख़ुद अपने-आप से मिलने का मैं अपना इरादा हूँ
इतना बदल गया हूँ कि पहचानने मुझे
अपनी नज़र से टूट कर अपनी नज़र में गुम हुआ
अज़िय्यतों को किसी तरह कम न कर पाया
आग जो बाहर है पहुँचेगी अंदर भी
सारे चेहरे ताँबे के हैं लेकिन सब पर क़लई है
गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम
टूट कर बिखरे न सूरज भी है मुझ को डर बहुत
बयाबाँ-ज़ाद कोई क्या कहे ख़ुद बे-मकाँ है