बाग़ में होना ही शायद सेब की पहचान थी
अब कि वो बाज़ार में है अब तो बिकना है उसे
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मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है
हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं
अज़िय्यतों को किसी तरह कम न कर पाया
टूट कर बिखरे न सूरज भी है मुझ को डर बहुत
बे-सूद एक सिलसिला-ए-इम्तिहाँ न खोल
रेज़ा रेज़ा रात भर जो ख़ौफ़ से होता रहा
भेजता हूँ हर रोज़ मैं जिस को ख़्वाब कोई अन-देखा सा
ख़ुशबुओं की दश्त से हमसायगी तड़पाएगी
फूल हो कर फूल को क्या चाहना
इतना बदल गया हूँ कि पहचानने मुझे
हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया
मुझ में थे जितने ऐब वो मेरे क़लम ने लिख दिए