हम दोनों
तितली के तआक़ुब में
दूर महकते ख़्वाबीदा सायों में डूबे
तितली हाथ से निकली थी
जंगल जाग पड़ा था
पत्तों की ओट से
शोला शोला आँखें झाँक रही थीं!
सब रस्ते मसदूद हुए थे!
Habib Jalib
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Allama Iqbal
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शनासा-ए-हक़ीक़त हो गए हैं
हम कहाँ कुंज-नशीनों में रहे
उस पल से
ये चलती-फिरती सी लाशें शुमार करने को
चाँद कोहरे के जज़ीरों में भटकता होगा
इंतिबाह
ख़ुद ख़मोशी के हिसारों में रहे
मुझ को मरने की कोई उजलत न थी
यक-ब-यक क्यूँ बंद दरवाज़े हुए
शाम से ज़ोरों पे तूफ़ाँ है बहुत
लैल-ए-शब-ताब चटानों में नहीं
रुस्तगारी