भर के नज़र यार न देखा कभी
जब गया आँख ही भर कर गया
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हक़ अदा करना मोहब्बत का बहुत दुश्वार है
यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-ज़ार ही रहा
काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ ऐ शैख़ पे ज़िन्हार नहीं
उठूँ दहशत से ता महफ़िल से उस की
सौगंद है हसरत मुझे एजाज़-ए-सुख़न की
उस ज़ुल्फ़ से दिल हो कर आज़ाद बहुत रोया
साक़ी हैं रोज़-ए-नौ-बहार यक दो सह चार पंज ओ शश
कम-तर या बेशतर गए हम
जान कर कहता है हम से अपने जाने की ख़बर
चाहे सो हमें कर तू गुनहगार हैं तेरे
इश्क़ में गुल के जो नालाँ बुलबुल-ए-ग़मनाक है
ज़ाहिदा किस हुस्न-ए-गंदुम-गूँ पे है तेरी निगाह