बनना था तो बनता न फ़रिश्ता न ख़ुदा मैं
इंसान ही बनता मिरी तकमील तो ये थी
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रवाँ हूँ मैं
सुपुर्द-ए-ग़म-ज़दगान-ए-सफ़-ए-वफ़ा हुआ मैं
मुज़ाहिमतों के अहद-निगार
मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया
कभी आइने सा भी सोचना मुझे आ गया
तिरी पहली दीद के साथ ही वो फ़ुसूँ भी था
जो ज़ख़्म जम्अ किए आँख-भर सुनाता हूँ
ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है
ध्यान आया मुझे रात की तन्हा-सफ़री का
करें हिजरत तो ख़ाक-ए-शहर भी जुज़-दान में रख लें