मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया
मैं जब आ सका न शुमार में मुझे बे-शुमार बना दिया
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इक लौ थी मिरे ख़ून में तहलील तो ये थी
काहिश-ए-ग़म ने जिगर ख़ून किया अंदर से
पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ
ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है
अब बाँझ ज़मीनों से उम्मीद भी क्या रखना
जो ज़ख़्म जम्अ किए आँख-भर सुनाता हूँ
बनना था तो बनता न फ़रिश्ता न ख़ुदा मैं
वो भी रो रो के बुझा डाला है अब आँखों ने
जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं
कभी आइने सा भी सोचना मुझे आ गया