वो भी रो रो के बुझा डाला है अब आँखों ने
रौशनी देता था जो एक दिया अंदर से
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मुज़ाहिमतों के अहद-निगार
काहिश-ए-ग़म ने जिगर ख़ून किया अंदर से
तिरे जुज़्व जुज़्व ख़याल को रग-ए-जाँ में पूरा उतार कर
ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है
बनना था तो बनता न फ़रिश्ता न ख़ुदा मैं
पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ
अब बाँझ ज़मीनों से उम्मीद भी क्या रखना
जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं
'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें
इक लौ थी मिरे ख़ून में तहलील तो ये थी
सुपुर्द-ए-ग़म-ज़दगान-ए-सफ़-ए-वफ़ा हुआ मैं