पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ
दम जितना मयस्सर है ये ठहरी हवा काटें
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वो भी रो रो के बुझा डाला है अब आँखों ने
रवाँ हूँ मैं
जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं
मुज़ाहिमतों के अहद-निगार
मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया
मैं दर पे तिरे दर-ब-दरी से निकल आया
तिरे जुज़्व जुज़्व ख़याल को रग-ए-जाँ में पूरा उतार कर
ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है
जो ज़ख़्म जम्अ किए आँख-भर सुनाता हूँ