दर्द तू जो करे है जी का ज़ियाँ
फ़ाएदा उस ज़ियान में कुछ है
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'दर्द' कुछ मालूम है ये लोग सब
ने गुल को है सबात न हम को है ए'तिबार
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
कभू रोना कभू हँसना कभू हैरान हो जाना
मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा
रात मज्लिस में तिरे हुस्न के शोले के हुज़ूर
दिल मिरा फिर दुखा दिया किन ने
हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़