'दर्द' कुछ मालूम है ये लोग सब
किस तरफ़ से आए थे कीधर चले
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क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
हम तुझ से किस हवस की फ़लक जुस्तुजू करें
बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना
दुश्मनी ने सुना न होवेगा
एक ईमान है बिसात अपनी
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
नामा-ए-दर्द को मिरे ले कर
'दर्द' के मिलने से ऐ यार बुरा क्यूँ माना
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
दिल भी ऐ 'दर्द' क़तरा-ए-ख़ूँ था
जग में आ कर इधर उधर देखा