दिल भी ऐ 'दर्द' क़तरा-ए-ख़ूँ था
आँसुओं में कहीं गिरा होगा
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कुंज-कावी जो की सीने में ग़म-ए-हिज्राँ ने
अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ'त को पा सके
समझना फ़हम गर कुछ है तबीई से इलाही को
ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
हो गया मेहमाँ-सरा-ए-कसरत-ए-मौहूम आह
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
मत जा तर-ओ-ताज़गी पे उस की
मैं जाता हूँ दिल को तिरे पास छोड़े
आगे ही बिन कहे तू कहे है नहीं नहीं
मुझ को तुझ से जो कुछ मोहब्बत है
ज़ालिम जफ़ा जो चाहे सो कर मुझ पे तू वले
देख मुझे तबीब आज पूछा जो हालत-ए-मिज़ाज