कुंज-कावी जो की सीने में ग़म-ए-हिज्राँ ने
इस दफ़ीने सती अक़साम-ए-जवाहर निकला
अश्क-ए-तर लख़्त-ए-जिगर क़तरा-ए-ख़ूँ पारा-ए-दिल
एक से एक रक़म आप से बेहतर निकला
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रौंदे है नक़्श-ए-पा की तरह ख़ल्क़ याँ मुझे
'दर्द' कुछ मालूम है ये लोग सब
बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना
कमर ख़मीदा नहीं बे-सबब ज़ईफ़ी में
हम तुझ से किस हवस की फ़लक जुस्तुजू करें
हाल मुझ ग़म-ज़दा का जिस जिस ने
ज़िंदगी है या कोई तूफ़ान है!
तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयो
तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा
क़ासिद नहीं ये काम तिरा अपनी राह ले
दिल मिरा फिर दुखा दिया किन ने
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़