रौंदे है नक़्श-ए-पा की तरह ख़ल्क़ याँ मुझे
ऐ उम्र-ए-रफ़्ता छोड़ गई तू कहाँ मुझे
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रब्त है नाज़-ए-बुताँ को तो मिरी जान के साथ
अज़िय्यत मुसीबत मलामत बलाएँ
साक़ी मिरे भी दिल की तरफ़ टुक निगाह कर
शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में
आगे ही बिन कहे तू कहे है नहीं नहीं
हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ
अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअत को पा सके
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
कहते न थे हम 'दर्द' मियाँ छोड़ो ये बातें