शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में
चश्म-ए-तर आए थे दामन-तर चले
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दिल मिरा फिर दुखा दिया किन ने
है ग़लत गर गुमान में कुछ है
दिल भी तेरे ही ढंग सीखा है
अज़िय्यत मुसीबत मलामत बलाएँ
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
साक़ी मिरे भी दिल की तरफ़ टुक निगाह कर
मिरा जी है जब तक तिरी जुस्तुजू है
काश उस के रू-ब-रू न करें मुझ को हश्र में
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
नहीं शिकवा मुझे कुछ बेवफ़ाई का तिरी हरगिज़
रब्त है नाज़-ए-बुताँ को तो मिरी जान के साथ
कुंज-कावी जो की सीने में ग़म-ए-हिज्राँ ने