है ग़लत गर गुमान में कुछ है
तुझ सिवा भी जहान में कुछ है
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हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ
सैर-ए-बहार-ए-बाग़ से हम को मुआ'फ़ कीजिए
खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मिरी
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
अगर यूँ ही ये दिल सताता रहेगा
एक ईमान है बिसात अपनी
समझना फ़हम गर कुछ है तबीई से इलाही को
जग में आ कर इधर उधर देखा
दिल मिरा फिर दुखा दिया किन ने
'दर्द' के मिलने से ऐ यार बुरा क्यूँ माना
ग़ाफ़िल ख़ुदा की याद पे मत भूल ज़ीनहार
तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयो