तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयो
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें
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जग में आ कर इधर उधर देखा
टुक ख़बर ले कि हर घड़ी हम को
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
रात मज्लिस में तिरे हुस्न के शोले के हुज़ूर
समझना फ़हम गर कुछ है तबीई से इलाही को
जान से हो गए बदन ख़ाली
हम तुझ से किस हवस की फ़लक जुस्तुजू करें
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मेरी
तमन्ना तिरी है अगर है तमन्ना
बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना
ग़ाफ़िल ख़ुदा की याद पे मत भूल ज़ीनहार