जग में आ कर इधर उधर देखा
तू ही आया नज़र जिधर देखा
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दिल भी ऐ 'दर्द' क़तरा-ए-ख़ूँ था
तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयो
एक ईमान है बिसात अपनी
तेरी गली में मैं न चलूँ और सबा चले
या-रब ये क्या तिलिस्म है इदराक-ओ-फ़हम याँ
चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
हाल मुझ ग़म-ज़दा का जिस जिस ने
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
टुक ख़बर ले कि हर घड़ी हम को
ज़िंदगी है या कोई तूफ़ान है!