जी की जी ही में रही बात न होने पाई
हैफ़ कि उस से मुलाक़ात न होने पाई
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वाए नादानी कि वक़्त-ए-मर्ग ये साबित हुआ
तमन्ना तिरी है अगर है तमन्ना
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
कभू रोना कभू हँसना कभू हैरान हो जाना
रब्त है नाज़-ए-बुताँ को तो मिरी जान के साथ
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को
हर-चंद तुझे सब्र नहीं दर्द व-लेकिन
अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ'त को पा सके
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था