हर-चंद तुझे सब्र नहीं दर्द व-लेकिन
इतना भी न मिलियो कि वो बदनाम बहुत हो
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बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
उन लबों ने न की मसीहाई
मत जा तर-ओ-ताज़गी पे उस की
मुझे ये डर है दिल-ए-ज़िंदा तू न मर जाए
खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मेरी
मैं जाता हूँ दिल को तिरे पास छोड़े
काश उस के रू-ब-रू न करें मुझ को हश्र में
कमर ख़मीदा नहीं बे-सबब ज़ईफ़ी में
ग़ाफ़िल ख़ुदा की याद पे मत भूल ज़ीनहार
हाल मुझ ग़म-ज़दा का जिस जिस ने
नहीं शिकवा मुझे कुछ बेवफ़ाई का तिरी हरगिज़