हो गया मेहमाँ-सरा-ए-कसरत-ए-मौहूम आह
वो दिल-ए-ख़ाली कि तेरा ख़ास ख़ल्वत-ख़ाना था
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या-रब ये क्या तिलिस्म है इदराक-ओ-फ़हम याँ
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
दिल मिरा फिर दुखा दिया किन ने
कुंज-कावी जो की सीने में ग़म-ए-हिज्राँ ने
सैर-ए-बहार-ए-बाग़ से हम को मुआ'फ़ कीजिए
दिल भी ऐ 'दर्द' क़तरा-ए-ख़ूँ था
उन लबों ने न की मसीहाई
बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना
टुक ख़बर ले कि हर घड़ी हम को
दुश्मनी ने सुना न होवेगा
अगर यूँ ही ये दिल सताता रहेगा
खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मिरी