हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ
नाले जो कुछ बिसात में थे सो सुना चले
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जग में आ कर इधर उधर देखा
गली से तिरी दिल को ले तो चला हूँ
दिल भी ऐ 'दर्द' क़तरा-ए-ख़ूँ था
इश्क़ हर-चंद मिरी जान सदा खाता है
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
कुंज-कावी जो की सीने में ग़म-ए-हिज्राँ ने
शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में
ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
हाल मुझ ग़म-ज़दा का जिस जिस ने