ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
मैं ने पूछा तो कहा ख़ैर ये मज़कूर न था
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'दर्द' कुछ मालूम है ये लोग सब
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
मैं जाता हूँ दिल को तिरे पास छोड़े
अगर यूँ ही ये दिल सताता रहेगा
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
उन लबों ने न की मसीहाई
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
दिल भी ऐ 'दर्द' क़तरा-ए-ख़ूँ था
न रह जावे कहीं तू ज़ाहिदा महरूम रहमत से
गली से तिरी दिल को ले तो चला हूँ