न रह जावे कहीं तू ज़ाहिदा महरूम रहमत से
गुनहगारों में समझा करियो अपनी बे-गुनाही को
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रात मज्लिस में तिरे हुस्न के शोले के हुज़ूर
दुश्मनी ने सुना न होवेगा
शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
हर-चंद तुझे सब्र नहीं दर्द व-लेकिन
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
क़त्ल से मेरे वो जो बाज़ रहा
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
'दर्द' कुछ मालूम है ये लोग सब
मैं जाता हूँ दिल को तिरे पास छोड़े
मुझे ये डर है दिल-ए-ज़िंदा तू न मर जाए
इश्क़ हर-चंद मिरी जान सदा खाता है