कमर ख़मीदा नहीं बे-सबब ज़ईफ़ी में
ज़मीन ढूँडते हैं वो मज़ार के क़ाबिल
Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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Mir Taqi Mir
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है ग़लत गर गुमान में कुछ है
दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को
जग में आ कर इधर उधर देखा
रौंदे है नक़्श-ए-पा की तरह ख़ल्क़ याँ मुझे
तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा
अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ'त को पा सके
ज़ालिम जफ़ा जो चाहे सो कर मुझ पे तू वले
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
ने गुल को है सबात न हम को है ए'तिबार
दर्द तू जो करे है जी का ज़ियाँ
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़