साक़िया! याँ लग रहा है चल-चलाव
जब तलक बस चल सके साग़र चले
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जग में कोई न टुक हँसा होगा
जग में आ कर इधर उधर देखा
या-रब ये क्या तिलिस्म है इदराक-ओ-फ़हम याँ
शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में
समझना फ़हम गर कुछ है तबीई से इलाही को
तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयो
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
अगर यूँ ही ये दिल सताता रहेगा
'दर्द' के मिलने से ऐ यार बुरा क्यूँ माना
यक-ब-यक नाम ले उठा मेरा
हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ
एक ईमान है बिसात अपनी