यक-ब-यक नाम ले उठा मेरा
जी में क्या उस के आ गया होगा
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खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मिरी
मुझे ये डर है दिल-ए-ज़िंदा तू न मर जाए
न रह जावे कहीं तू ज़ाहिदा महरूम रहमत से
हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
दिल मिरा फिर दुखा दिया किन ने
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
दुश्मनी ने सुना न होवेगा
नहीं शिकवा मुझे कुछ बेवफ़ाई का तिरी हरगिज़
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
सैर-ए-बहार-ए-बाग़ से हम को मुआ'फ़ कीजिए
रौंदे है नक़्श-ए-पा की तरह ख़ल्क़ याँ मुझे