वहदत में तेरी हर्फ़ दुई का न आ सके
आईना क्या मजाल तुझे मुँह दिखा सके
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नहीं शिकवा मुझे कुछ बेवफ़ाई का तिरी हरगिज़
जग में आ कर इधर उधर देखा
हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ
मत जा तर-ओ-ताज़गी पे उस की
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
वाए नादानी कि वक़्त-ए-मर्ग ये साबित हुआ
इश्क़ हर-चंद मिरी जान सदा खाता है
रात मज्लिस में तिरे हुस्न के शोले के हुज़ूर
या-रब ये क्या तिलिस्म है इदराक-ओ-फ़हम याँ
तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा