ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
कब वो सुनता है कहानी मेरी
जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था