मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपेह्र-ओ-ज़मीं
दिखाई देता है सब कुछ यहाँ ख़ुदा के सिवा
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Gulzar
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Habib Jalib
Allama Iqbal
Rahat Indori
Anwar Masood
Parveen Shakir
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
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है शक्ल तेरी गुलाब जैसी
पहली बात ही आख़िरी थी
नील-ए-फ़लक के इस्म में नक़्श-ए-असीर के सबब
वक़्त से कहियो ज़रा कम कम चले
मैं और वो
ज़मीं के गिर्द भी पानी ज़मीं की तह में भी
अपने घर में
दिल ख़ौफ़ में है आलम-ए-फ़ानी को देख कर
मिसाल-ए-संग खड़ा है उसी हसीं की तरह
वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर'
आमद-ए-शब
डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में