ज़मीं के गिर्द भी पानी ज़मीं की तह में भी
ये शहर जम के खड़ा है जो तैरता ही न हो
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दिल ख़ौफ़ में है आलम-ए-फ़ानी को देख कर
था 'मुनीर' आग़ाज़ ही से रास्ता अपना ग़लत
पागल-पन
हमेशा देर कर देता हूँ
जो मुझे भुला देंगे मैं उन्हें भुला दूँगा
मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को
शहर में वो मो'तबर मेरी गवाही से हुआ
उन से नयन मिला के देखो
तिलिस्मात
और हैं कितनी मंज़िलें बाक़ी
मिलती नहीं पनाह हमें जिस ज़मीन पर