ये सफ़र मा'लूम का मालूम तक है ऐ 'मुनीर'
मैं कहाँ तक इन हदों के क़ैद-ख़ानों में रहूँ
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रंज-ए-फ़िराक़-ए-यार में रुस्वा नहीं हुआ
बड़ी मुश्किल से ये जाना कि हिज्र-ए-यार में रहना
देखने वाले की उलझन
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
दिल को हाल-ए-क़रार में देखा
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
इक और घर भी था मिरा
हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
दुश्मन की तरफ़ दोस्ती का हाथ
ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
है शक्ल तेरी गुलाब जैसी