ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
मुर्दा लोगों की आदतें बाक़ी
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थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत
ग़ैर से नफ़रत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
नींद का हल्का गुलाबी सा ख़ुमार आँखों में था
दिल जल रहा था ग़म से मगर नग़्मा-गर रहा
जिन के होने से हम भी हैं ऐ दिल
मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन ब'अद में होगी
रात इतनी जा चुकी है और सोना है अभी
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़