दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
याद पीछे खींचती है आस आगे की तरफ़
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ख़ुमार-ए-शब में उसे मैं सलाम कर बैठा
नील-ए-फ़लक के इस्म में नक़्श-ए-असीर के सबब
ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
दुश्मनों के दरमियान शाम
मिलती नहीं पनाह हमें जिस ज़मीन पर
मैं
मैं और वो
मुद्दत के ब'अद आज उसे देख कर 'मुनीर'
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
ज़ोर पैदा जिस्म ओ जाँ की ना-तवानी से हुआ