दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
दरिया-ए-ग़म के पार उतर जाएँ हम तो क्या
Jaun Eliya
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Allama Iqbal
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Gulzar
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कोई हद नहीं है कमाल की
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
सपेरा
इस शहर के यहीं कहीं होने का रंग है
सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
अपने घर को वापस जाओ रो रो कर समझाता है
सफ़र में है जो अज़ल से ये वो बला ही न हो
बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने
इक तेज़ रा'द जैसी सदा हर मकान में
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
मैं और मेरा ख़ुदा
कुछ वक़्त चाहते थे कि सोचें तिरे लिए