कुछ वक़्त चाहते थे कि सोचें तिरे लिए
तू ने वो वक़्त हम को ज़माने नहीं दिया
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रोया था कौन कौन मुझे कुछ ख़बर नहीं
बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में
लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
उन से नयन मिला के देखो
दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं
इक और घर भी था मिरा
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगाँ की याद
बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया
खड़ा हूँ ज़ेर-ए-फ़लक गुम्बद-ए-सदा में 'मुनीर'