खड़ा हूँ ज़ेर-ए-फ़लक गुम्बद-ए-सदा में 'मुनीर'
कि जैसे हाथ उठा हो कोई दुआ के लिए
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दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं
मैं, वो और रात
बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई
तुम मेरे लिए इतने परेशान से क्यूँ हो
कल्पना
शब-ए-विसाल में दूरी का ख़्वाब क्यूँ आया
सहन को चमका गई बेलों को गीला कर गई
ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
ख़ुमार-ए-शब में उसे मैं सलाम कर बैठा
कुछ वक़्त चाहते थे कि सोचें तिरे लिए
अभी मुझे इक दश्त-ए-सदा की वीरानी से गुज़रना है
मिरे पास ऐसा तिलिस्म है जो कई ज़मानों का इस्म है