मिरे पास ऐसा तिलिस्म है जो कई ज़मानों का इस्म है
उसे जब भी सोचा बुला लिया उसे जो भी चाहा बना दिया
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मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
हुस्न में गुनाह की ख़्वाहिश
मैं और मेरा ख़ुदा
ख़लिश
अपना तो ये काम है भाई दिल का ख़ून बहाते रहना
मैं, वो और रात
ग़ैर से नफ़अत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
इक मसाफ़त पाँव शल करती हुई सी ख़्वाब में
ग़ैरों से मिल के ही सही बे-बाक तो हुआ
शब-ए-माहताब ने शह-नशीं पे अजीब गुल सा खिला दिया
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
नील-ए-फ़लक के इस्म में नक़्श-ए-असीर के सबब