कुछ दिन के बा'द उस से जुदा हो गए 'मुनीर'
उस बेवफ़ा से अपनी तबीअत नहीं मिली
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छै रंगीं दरवाज़े
'मुनीर' अच्छा नहीं लगता ये तेरा
ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
मैं
बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया
इस शहर के यहीं कहीं होने का रंग है
चाँद निकला है सर-ए-क़र्या-ए-ज़ुल्मत देखो
एक नगर के नक़्श भुला दूँ एक नगर ईजाद करूँ
दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
अपने घर में
आदत ही बना ली है तुम ने तो 'मुनीर' अपनी
कल्पना