'मुनीर' अच्छा नहीं लगता ये तेरा
किसी के हिज्र में बीमार होना
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आ गई याद शाम ढलते ही
बड़ी मुश्किल से ये जाना कि हिज्र-ए-यार में रहना
एक नगर के नक़्श भुला दूँ एक नगर ईजाद करूँ
इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया
शब-ख़ूँ
लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास
सदा ब-सहरा
वो जिस को मैं समझता रहा कामयाब दिन
गली के बाहर तमाम मंज़र बदल गए थे
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
हर्फ़ सादा-ओ-रंगीं