मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
पर्दा सा कोई मेरे तिरे दरमियाँ तो है
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कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर'
तुम मेरे लिए इतने परेशान से क्यूँ हो
हर्फ़ सादा-ओ-रंगीं
बेबसी
ग़ैर से नफ़रत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
नवाह-ए-वुसअत-ए-मैदाँ में हैरानी बहुत है
ग़ैरों से मिल के ही सही बे-बाक तो हुआ
दूरी
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ