ग़ैर से नफ़रत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
जितने हम थे हम ने ख़ुद को उस से आधा कर लिया
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
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उस हुस्न का शेवा है जब इश्क़ नज़र आए
फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
शब-ख़ूँ
ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
था 'मुनीर' आग़ाज़ ही से रास्ता अपना ग़लत
मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़
कोई दाग़ है मिरे नाम पर
वहम ये तुझ को अजब है ऐ जमाल-ए-कम-नुमा
अपनी ही तेग़-ए-अदा से आप घायल हो गया
इक तेज़ रा'द जैसी सदा हर मकान में
मैं और मेरा ख़ुदा