वहम ये तुझ को अजब है ऐ जमाल-ए-कम-नुमा
जैसे सब कुछ हो मगर तू दीद के क़ाबिल न हो
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देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं
शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
तन्हा उजाड़ बुर्जों में फिरता है तू 'मुनीर'
बाज़गश्त
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
इस शहर-ए-संग-दिल को जला देना चाहिए
क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया
सपना आगे जाता कैसे
ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
बस एक माह-ए-जुनूँ-ख़ेज़ की ज़िया के सिवा
अच्छी मिसाल बनतीं ज़ाहिर अगर वो होतीं