शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
रात बादल इस तरह आए कि मैं तो डर गया
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ये सफ़र मालूम का मा'लूम तक है ऐ 'मुनीर'
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
शब-ख़ूँ
तू
इस शहर के यहीं कहीं होने का रंग है
दिल ख़ौफ़ में है आलम-ए-फ़ानी को देख कर
साअत-ए-हिज्राँ है अब कैसे जहानों में रहूँ
'मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है
था 'मुनीर' आग़ाज़ ही से रास्ता अपना ग़लत
खड़ा हूँ ज़ेर-ए-फ़लक गुम्बद-ए-सदा में 'मुनीर'
इस शहर-ए-संग-दिल को जला देना चाहिए
वक़्त से कहियो ज़रा कम कम चले