तू
वहाँ जिस जगह पर सदा सो गई है
हर इक सम्त ऊँचे दरख़्तों के झुण्ड
अन-गिनत साँस रोके हुए चुप खड़े हैं
जहाँ अब्र-आलूद शाम उड़ते लम्हों को रोके अबद बन गई है
वहाँ इश्क़ पेचाँ की बेलों में लिपटा हुआ इक मकाँ हो
अगर मैं कभी राह चलते हुए उस मकाँ के दरीचों के
नीचे से गुज़रूँ
तो अपनी निगाहों में इक आने वाले मुसाफ़िर की
धुँदली तमन्ना लिए तू खड़ी हो
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