मैं उस को देख के चुप था उसी की शादी में
मज़ा तो सारा इसी रस्म के निबाह में था
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कोयलें कूकीं बहुत दीवार-ए-गुलशन की तरफ़
रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
छै रंगीं दरवाज़े
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
नई महफ़िल में पहली शनासाई
जिन के होने से हम भी हैं ऐ दिल
इक तेज़ रा'द जैसी सदा हर मकान में
आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
और हैं कितनी मंज़िलें बाक़ी
तूफ़ानी रात में इंतिज़ार
कोई तो है 'मुनीर' जिसे फ़िक्र है मिरी