छै रंगों के फूल खिले हैं
मेरे घर के आगे
किसी नए सुख के दरवाज़े
ख़्वाब से जैसे जागे
उन के पीछे रंग बहुत हैं
और बहुत अंदाज़े
उन के पीछे शहर बहुत हैं
और बहुत दरवाज़े
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चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम
दिल ख़ौफ़ में है आलम-ए-फ़ानी को देख कर
मिसाल-ए-संग खड़ा है उसी हसीं की तरह
बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
ख़याल-ए-यकता में ख़्वाब इतने
रहता है इक हर उस सा क़दमों के साथ साथ
चाँद निकला है सर-ए-क़र्या-ए-ज़ुल्मत देखो
जो मुझे भुला देंगे मैं उन्हें भुला दूँगा
आइना अब जुदा नहीं करता
बेबसी
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं