चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
देखना फिर बहर को उस की कशिश से जागता
Ahmad Faraz
Gulzar
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Jaun Eliya
Rahat Indori
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(294) Peoples Rate This
रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
अपना तो ये काम है भाई दिल का ख़ून बहाते रहना
जुर्म आदम ने किया और नस्ल-ए-आदम को सज़ा
दिन अगर चढ़ता उधर से मैं इधर से जागता
जंगलों में कोई पीछे से बुलाए तो 'मुनीर'
आई है अब याद क्या रात इक बीते साल की
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
इक और घर भी था मिरा
मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये
एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने
उस हुस्न का शेवा है जब इश्क़ नज़र आए
ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगाँ की याद